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सुखांत: गिरिराज किराडू

गिरिराज किराडू : १५ मार्च १९७५, बीकानेर राजस्थान

लेखक, संपादक और अब प्रकाशक भी
प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में कविताएँ,लेख अनुवाद आदि
उर्दू, मराठी, अंग्रेजी आदि में अनूदित

तीन संपादित पुस्तकें प्रकाशित
हनीफ कुरैशी के Intimacy का हिंदी में और गीतांजलि श्री के तिरोहित, श्रीकान्त वर्मा, और अरुण कमल की कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद

प्रतिलिपि (बहुभाषी वेब-कम-प्रिंट पत्रिका ) का संपादन और
स्याही में अनुवाद सलाहकार
कई साहित्यिक समारोहों का आयोजन
कविता के लिए पहली कविता पर ही भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (२०००)

विश्वविद्यालय में अंग्रेजी – अध्यापन
संगम हाउस रेजीडेंसी के सलाहकार
ई-पता : mail@pratilipibooks.com, mail@pratilipi.in

गिरिराज का कहन अलहदा इस तरह है कि उसमें बहुवचनात्मकता और संदर्भबहुलता एक स्थाई टेक की तरह हैं. उनका काव्यत्व अतिपरिचित विवरणों से कई बार, और कई बार तो सहज बहते जीवन रस से किसी उदग्र प्रति-विवरण और भित्ति-चित्र की तरह आलोकित हो जाता है. कई बार वह पारदर्शी हो गए विवरणों के विन्यास को अपनी कविता में बदल देते है. ... गो कि कई बार कवि अपने कवि होने से थक भी जाता है. कविता और कविता के बाहर भी अपने नवाचार के लिए ख्याती.






सुखांत


तुम यही करोगे
अंत में मुझे दंड खुद को पुरस्कार दोगे
किंतु तुम्हारा किया यह अंत सिर्फ़ एक विरामचिन्ह है
दिशा सूचक केवल
मील का पत्थर
अनाथ!
इसी मार्ग पर दंड वरदान पुरस्कार शाप हो जाएगा
तुम जानते हो यह
ऐसा होने से पहले ही किस्से को जिबह कर लोगे
एक वार में गिरेगा सिर जमीन पर
एक झपट्टे में चूहा फंसेगा बिल्ली के दांतों में
खून बिखरने लगेगा तुम्हारे सपनों में!

तब जानोगे किस्सा बलि का बकरा नहीं
देवता है स्वयं!

सपनों में फैलता खून
किस्सा
बिल्ली के दांतों में चूहा
लेखन इसके सिवा और क्या!
(शेक्सपियर इन लव से प्रेरित)



उम्मीद ला दवा

कवि होने से थक गया हूँ
होने की इस अजब आदत से थक गया हूँ
कवि होने की कीमत है हर चीज़ से बड़ी है वो कविता
जिसमें लिखते हैं हम उसे
लिखकर सब कुछ से बिछड़ने से थक गया हूँ
अपना मरना बार बार लिखकर मरने तक से बिछड़ गया हूँ
हमारे बाद भी रहती है कविता
इस भुतहा उम्मीद से थक गया हूँ.

(जनाब नंदकिशोर आचार्य और जनाब अशोक वाजपेयी की एक-एक कविता के नाम जिनसे अपनी गुस्ताख नाइत्तेफाकी और इश्क के चलते यह कविता मुमकिन हुई है )



क्या क्या होना बचा रहेगा

आप शायद जानते हों कि मैं आपके सामने वाले घर में रहती हूँ आपने अक्सर हमें झगड़ते हुए सुना होगा हमें आपके घर की शांति इतनी जानलेवा लगती है कि हम झगड़ने लगते हैं सच मानिये हमारे झगडे की और कोई वजह नहीं होती आपके सिवा झगड़ते हुए हम मुस्कुरा रहे होते हैं हम अटकल करते हैं कि आप लोग हमारे घर से आ रहे शोर को ध्यान से सुनने की कोशिश कर रहे हैं मैं कहती हूँ तुम बदल गए हो वह कहता है तुम बदल गयी हो हम एक दूसरे के कुनबे और कबीले और तहज़ीब और मज़हब को भला बुरा कहते हैं बिलकुल खराब बातें करते हैं एक दूसरे के बारे में मैं रोने लगती हूँ वो चीज़ें फेंकने लगता है एक बार तो उसने मोबाईल दीवार से दे मारा और मैं उस पर जोर से चिल्ला पडी अगले दिन मैंने भी अपना मोबाईल दीवार पे दे मारा आपके घर की शांति के चक्कर में अपना नुकसान कर बैठे पर आप लोग हैं कि कभी इधर झांकते भी नहीं एक बात साफ़ साफ़ सुन लीजिए रहिये मगन अपने में आप जैसे लोगों के कारण ही ये दुनिया अब बहुत दिन नहीं बचने वाली.


फैज़?

पौधे खरीद रही है मैं बहुत जलेकटे ढंग से याद दिला रहा हूँ कैसे उसे उनकी देखभाल करनी नहीं आती कैसे हर बार पाँच सात दिन बाद पानी देना भूल जाती हो कैसे हर बार एक पेड़ एक फूल तुम्हारे हाथों तबाह हो जाता है कैसे यह तबाही तुम्हें उज़ाड देती है कैसे यह क़त्ल तुम्हें बहुत दिनों तक गुमसुम रखता है
लाहौल विला फिर भी ढेर सारे खरीद ही लेती है कमबख़्त मैं एक पौधा हाथ में ले कर कहता हूँ चलो प्यारे सू-ए-दार चलें वह कुछ जोर देकर याद करती है फैज़?.


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पक्षीविदों का कहना है यहाँ चौवन तरह के परिंदों ने अपना घर बसा लिया है सब बड़े मज़े से रहते हैं कबूतरों को घास पर सोते हुए सिर्फ यहीं देखा है मैंने
कल सुबह इतनी मधुमक्खियाँ मरी हुई थीं पाँव बचाकर अंदर पहुंचते हुए लगा संहार के किसी दृश्य में हैं मारे गये लोग पड़े हैं चारों तरफ
उधर पक्षी सब अपने में मगन थे.


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वही जनपद जो कला नहीं जानता पढ़ता है तुलसी कृत रामायण – कवि अपने भूखे, दूखे जनपद को मृत्य की दूरी से देखता है, अब कोई सुधार नहीं हो सकता जीवन में न कविता में विचित्र कूट है दोनों का
हो सकता है रामकथा महज़ राम की कथा न हो हो सकता है यह जनपद एक अवसन्न छाया हो मृत्यु की दूरी से होती हो जो गोचर हो सकता है कवि त्रिलोचन कभी हुए हों सजल, उठ बैठे हों सपनाय जब वे नहीं रहेंगे किस बिधि होगी होम कबिता इस घाट पर.


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ऊँट की निगाह में राहगीर रेत का पुतला है रेगिस्तान के ख़याल में ऊँट पानी का पैकर है – बस की खिड़की से बाहर देखते हुए अक़्सर ऐसी बातें बुदबुदाने वाली श्रीमती अंजू व्यास जो चार बरस से हर सुबह सात बजे की बस से उतरकर आती थीं स्कूल और साढ़े बारह की बस पकड़कर जाती थीं शहर अपने घर आज सुबह ऐसे उठीं कि घर को बस समझकर उसी में बैठ गयीं और एक घंटे बाद जब उतरीं स्कूल बंद हो चुका था – उनकी क्लास के बच्चे वहाँ मतीरे बेच रहे थे मतीरे के मन में बच्चे खेत के बिजूके हैं श्रीमती अंजू व्यास ने सोचा
बच्चों से पता चला बाद में यही वो आख़िरी ख़याल था जो उनके मन में आया मतीरे तो ख़ैर वो कभी खरीदती ही नहीं थीं.


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आईये आपका सबसे तआरूफ़ करा दूं ये हमारी चप्पले हैं इन्होंने चुपचाप चलते रहने के ज़दीद तौर तरीकों पर नायाब तज़ुर्बे किये हैं, इनसे आप शायद पहले भी मिले हैं ये हैं हमारी शर्ट सालों साल जीने का नुस्ख़ा इनकी जेब में ही पड़ा रहता है गो दिखातीं किसी को नहीं ये बैल्ट हैं हर लम्हा जिसके चमड़े से बनी हैं उस क़ाफ़िर की आत्मा की शांति के लिये दुआ करती रहती हैं और ये हमारा चश्मा साफ़ देखने की इनकी इतनी तरकीबें नाकाम हो चुकी कि सिवा ग़फ़्लत अब कुछ नज़र ही नहीं आता इन्हें – यही अपनी घर-गिरस्ती है
इसे देखकर आपको चाहे कोई वीराना याद आये हमें तो कुछ सहमी कुछ संगीन अपनी ही याद आती है.

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