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युवा लेखन पर एक बहस

नामवर



इतिहास से बाहर जाने का एक प्रफॉयडीय मनोविश्लेषणात्मक प्रयास भी है जिसमें व्यक्ति के शिशु-मन की तथाकथित आदिम अंध्ेरी गुपफा है। युवा-लेखन का एक अंश ऐसा भी है जो सीध्े प्रफॉयड से प्रेरित या प्रभावित न होते हुए भी, मन की आदिम अंध्ेरी गुपफाओं से निकलने वाले प्रतीकों और मिथकों में अपने-आपको व्यक्त करता है। इसके मूल में एक विशेष प्रकार की अबौ(किता अथवा बु(विरोध् है। सामान्य बोध् का अतिक्रमण करके कुछ युवा-लेखन मानसिक अंध्ेरे की इसी दृष्टि से आज के संसार को देखते हैं और उसके आधर पर एक भयावह 'पफैंटेसी' के संसार की सृष्टि करते हैं। ऐसे लेखन का रूपगठन भी बौ(कि गठन से भिन्न बहुत कुछ अतार्किक होता है। यह प्रवृत्ति कविता और कहानी दोनों में दृष्टिगोचर होती है। एक उदाहरण दूध्नाथ सिंह की रचनाएँ ह

आरंभ' के अक्टूबर ६७ अंक में युवा-लेखन-संबंध्ी पिछली बहसों पर टिप्पणी करते हुए एक युवा लेखक ने लिखा है कि ''एक काल्पनिक या अमूर्त नई पीढ़ी जिसे नाम कोई नहीं दे रहा' दोनों तरपफ से पिट रही है। जहाँ तक युवा-लेखन को लेकर दो पक्षों के होने या बनने का सवाल है वह तो शुरू से है। अज्ञेय ने जिसे 'आ तू, आ' संबोधित किया उसी को मुक्तिबोध् ने 'ओ काव्यात्मन्‌ पफणिधर' समर्पित किया। तब से सात साल हो गए। मैं नहीं जानता कि इस दो-तरपफा तनाव के बीच युवा पीढ़ी कितनी टूटी है, क्योंकि यह तो उसकी अपनी पक्षधरता और अपनी ताकत पर निर्भर है, किंतु यह तथ्य है कि बहुतों के लिए आज भी युवा पीढ़ी ''काल्पनिक'' नहीं तो ''अमूर्त'' अवश्य है, क्योंकि अभी तक उसने अपनी कोई निश्चित संज्ञा नहीं स्थापित की-वह स्वयं भी अनेक विसंगतियों से होकर गुजर रही है। इतना निश्चित है कि वह नाम संद्घर्ष की इस ऐतिहासिक प्रक्रिया से भागकर नहीं, बल्कि इसके बीच ही प्राप्त किया जा सकता है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रायः हर दशक बाद साहित्यों में एक नयी पीढ़ी का उदय होता है। युवा-सुलभ विद्रोह भर पीढ़ी में दिखता है। विद्रोह के ये अंदाज भी उतने ही जाने-पहचाने हो चले हैं जितने प्रतिरोध् के प्रयास, जैसे परंपराद्रोह, विदेशी अनुकरण, असाहित्यिकता, असामाजिकता अश्लीलता आदि। आरोप-प्रत्यारोप का ढाँचा वही रहता है, मुहावरे अलबत्ता बदल जाते हैं। मजा उस ढाँचे को दुहराने में नहीं, नए मुहावरों में है, क्योंकि हर पीढ़ी के साथ साहित्य में जो कुछ नया आता है वह इन्हीं मुहावरों के सहारे समझा जा सकता है। मुहावरे स्वयं रचना नहीं होते, यहाँ तक कि कभी-कभी वास्तविक रचना के सर्वथा विरोध्ी भी होते हैं, इसलिये दोनों को एक समझ लेने वाले अक्सर चक्कर में भी आ जाते हैं, किन्तु यदि यह तथ्य ध्यान में हो तो उन्हें सहायक ठट्ठर के रूप में इस्तेमाल करना उपयोगी है, उपयोग के बाद वे अपने आप पफालतू हो जाते हैं। युवा लेखन के संदर्भ में इस्तेमाल किये जाने वाले विद्रोह, आक्रोश, अस्वीकृति, असहमति, आक्रामकता आदि अमूर्त भाव वाचक संज्ञाए इसी प्रकार के नये मुहावरे हैं। इतिहास में जिस प्रकार युवा पीढ़ी के साथ ये नये मुहावरे आए उनसे और कुछ नहीं तो इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि सोचने समझने की दिशा में परिवर्तन हो रहा है। युवा लेखन के बहाने आक्रोश, अस्वीकृति आदि पर अलग से बहस की जा सकती है। किन्तु बहस यदि किसी न किसी के बहाने ही करनी है तो ऐसे शब्दों के बहाने युवा -लेखन पर ही केन्द्रित की जाय।
'नाम' की तलाश से स्पष्ट है कि यह युवा पीढ़ी भी हर पीढ़ी की तरह अपनी भिन्नता और विशिष्टता के लिये आग्रहशील है। विभिन्नता का आग्रह यदि पहले से अध्कि है तो इसलिए कि इतिहास में उसकी स्थिति पहले की सभी पीढ़ियों से नितान्त भिन्न है यदि औरों का एक पाँव आजादी के पहले भारत में है तो युवा पीढ़ी ने एकदम आजादी के बाद के भारत में ही आँखें खोलीं। और मामूली मालूम होने वाला यह अंतर मानसिक गठन के स्तर पर बहुत बड़ा अन्तर डाल देता है। व्यक्ति के रूप में युवा लेखकों का मानस-संस्कार स्वातंत्रा्‌योत्तर भारत में बना तो इतिहास के रूप में पफैलने को मिला साठोत्तरी युग-परिवर्तन! व्यक्तित्व भी भिन्न, परिवेश भी भिन्न। परिवेश और व्यक्तित्व का यह विशिष्ट द्घात-प्रतिद्घात ही युवा लेखन की भिन्नता का आधर है।
वैसे, भिन्नता-सूचक इन दोनों तथ्यों को लेकर कापफी विवाद हुआ है। बड़े बूढ़े ही नहीं, युवा पीढ़ी के अग्रज भी आसानी से यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि युवा लेखकों के सोचने समझने और अनुभव करने का तरीका भिन्न हो सकता है। इस कठिनाई का सब से दिलचस्प उदाहरण वहाँ दिखाई पड़ता है जहाँ एक ही विचारधरा को मानने वाली और एक ही राजनीतिक पार्टी में काम करने वाली दो पीढ़ियों में टकराहट होती है। आज पीढ़ियों का संद्घर्ष इसी बुनियादी अंतर का सूचक है। यह व्यक्तिगत दुर्द्घटना नहीं बल्कि एक ऐतिहासिक अंतर है, जिसे स्वीकार किए बिना परिस्थिति को समझना असंभव है। इसी तरह साठोत्तरी युग-परिवर्तन को लेकर उलझना भी कठमुल्लापन है। साठ की जगह बासठ तिरसठ या चौसठ जो चाहे कर लीजिए क्योंकि यह कोई पत्रा का मुहूर्त नहीं हैऋ राजनीतिक स्तर पर इसे चीनी या पाकिस्तानी हमले से जोड़ने को लेकर भी ज्यादा बहस नहीं है और न बहस है नेहरू की मृत्यु-तिथि से इसका तालमेल बिठाने के सवाल को लेकर। विभाजन का आधर कोई भी द्घटना मानी जाय, तथ्य यही है कि छठे दशक के साथ एक युगांत की धरणा पुष्ट हो जाती है। जिसे सुविध के लिए राजनीतिक भाषा में नेहरू युग का अन्त कह सकते हैं। साहित्य में इसके समान्तर जिस प्रकार युग-परिवर्तन की रेखाएँ उभरती है उसे केदारनाथ सिंह अपने एक निबंध् ;र्ध्मयुग, ४ जुलाई १९६५द्ध में सप्रमाण दिखला चुके हैं, जिसकी पुष्टि आगे चलकर अन्य लेखकों द्वारा हुई है। इस युग-परिवर्तन की स्वीकृति निस्संदेह कुछ लोगों के लिए असुविधजनक हो सकती है, किन्तु इसकी अस्वीकृति सार्थक साहित्य -सृजन के लिए निश्चित रूप से बाध्क हुई- यह पिछली पीढ़ी के बहुत सारे 'समकालीन' लेखन से सि( है। युवा लेखकों द्वारा इस युग-परिवर्तन की द्घोषणा के पीछे मान्यता प्राप्त करने का कोरा स्वार्थ नहीं, बल्कि अपनी रचना के सही परिप्रेक्ष्य को परिभाषित करने का संद्घर्ष है। कहना न होगा कि युवा लेखकों ने इस परिप्रेक्ष्य को परिभाषित करने की प्रक्रिया में ही अपने आपको भी क्रमशः परिभाषित किया और इस प्रकार अपनी भिन्नता और विशिष्टता की अलग रेखा खींची । अपने इस परिवेश से द्घनिष्ठ और तीव्र रूप में संसक्त होने के अर्थ में ही वह साठोत्तरी पीढ़ी है। इसलिए युवा- लेखन को परिभाषित करने के लिए यह साठोत्तरी संदर्भ अपरिहार्य है।
युवा लेखक के मिजाज को समझने का एक तरीका यह हो सकता है कि उसमें सम्मूर्तित आदमी की ठोस तस्वीर से शुरू किया जाय, जैसे कुछ लोगों ने 'लद्घु मानव' के द्वारा 'नयी कविता' को परिभाषित करने का प्रयास किया। इस दृष्टि से इतना तो तुरन्त कहा जा सकता है कि युवा लेखन उस 'लद्घु मानव' का साहित्य नहीं है। केदारनाथ सिंह ने इस दिशा में एक संकेत दिया है कि ''आज के कवि का 'मैं' एक वचन उत्तम पुरुष का 'मैं' न होकर 'हम' की तरह अमूर्त और व्यापक हो गया है। और ऐसा किसी बड़े आदर्श के प्रति आग्रह के कारण नहीं, बल्कि अमानवीय कारण की एक बृहत्तर प्रक्रिया के अंतर्गत अपने आप और बहुत कुछ कवि के अनजान में ही हो गया है।'' कहानियों में यही 'मैं' व्याकरण की दृष्टि से उत्तम पुरुष एकवचन होते हुए भी अर्थ की दृष्टि से प्रायः अन्य पुरुष एकवचन 'वह' के रूप में आता है। हर हालत में नियामक है अमानवीकरण की प्रक्रिया। 'महामानव', 'साधारण मानव' और 'लद्घु मानव' की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए चाहें तो इसे 'नगण्य मानव' भी कह सकते हैं। कविता हो या कहानी- अध्किांश युवा-लेखन में निहित मानव में गहरे स्तर पर अपनी नगण्यता को बोध् ब(मूल है। आत्मदया, असहायता, आक्रोश, जिद्घांसा, उदासीनता आदि सभी मनःस्थितियाँ इस नगण्यता से ही उत्पन्न और परिचालित होती है।
और नगण्यता का यह बोध् युवा-लेखन के संदर्भ को देखते हुए बेमेल नहीं लगता। यह तथ्य है कि युवा पीढ़ी को न तो आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने का मौका मिला और न स्वाध्ीन भारत के निर्माण में योग देने की सुविध ही मिली। अतीत से बाहर वर्तमान से बाहर और भविष्य तो अनिश्चित होने के कारण यों भी बाहर है। इस प्रकार युवा पीढ़ी इतिहास से 'बाहर' रही। बाहर मैं कर दिया गया हूँ, भीतर पर भर दिया गया हूँ -निराला की यह पंक्ति जैसे आज के युवक की ओर से ही कही गई है। बाहर कर दिए जाने के कारण ही वह भीतर से भर दिया गया है। यही नहीं, बल्कि वह इतिहास के बाहर रहकर ही इतिहास में हिस्सा भी ले रहा है। इतिहास में वह बाहर से शरीक है। नितांत 'बाहरी' होने की यह मनःस्थिति युवा-लेखन के हर स्तर पर सक्रिय दिखाई पड़ती है। अपने-आपको 'पफालतू पुर्जा' और बाकी साथियों को भी एक ही भाग के पफालतू पुर्जों का ढेर समझना इसी बोध् का सूचक है। जो 'अंदर' है और जो काम में लगे हैं उनकी नजर में यह स्थिति भले ही अजीब हो, लेकन जिस राष्ट्र के निर्माण कार्य में भाग लेने से समूची जनता को बाहर रखा गया हो और जिसमें बेकार तो बेकार, राजकाज की मशीन में काम से लगे पुर्जें भी किसी स्पष्ट उद्देश्य के अभाव में अपने-आपको बेकार समझ रहे हों, यह मनःस्थिति अनपहचानी नहीं हो सकती।
नगण्यता के इस बोध् ने जागरूक युवक लेखक को नगण्य-से-नगण्य वस्तु और व्यक्ति को देख सकने की क्षमता दी है। यदि बारीक-से-बारीक ब्यौरे की दृष्टि से युवा लेखन समृ(तर है तो इसी क्षमता के कारण। इसे यथार्थ-चित्राण और वस्तु-अंकन की दिशा में विकास कहा जाएगा। इस लेखन में गली-कूचे, खेत-खलिहान के मामूली आदमी अपनी सारी नगण्यता के साथ सजीव रूप में जिस प्रकार आए हैं वह इसी दृष्टि का परिणाम है। वैसे, ये प्रतिमाएँ पिछले प्रगतिशील दौर में भी दिखाई पड़ी थी किन्तु इनके निमार्ण में प्रायः 'दृष्टि' से ज्यादा 'कोण' उभर जाता था। यहाँ उल्लेखनीय है कि इस प्रवृति का सपफल निर्वाह युवा लेखन के अंर्तगत कहानियों से ज्यादा स्पष्ट कविताओं में है। कहानियाँ वस्तुओं के ब्यौरे में समृ( हो सकती हैं, लेकिन मानव-व्यक्तियों की दृष्टि से तो कविताएँ ही अध्कि समृ( हैं। उदाहरण द्घूमिल की कविताओं में देखे जा सकते हैं! इसके अतिरिक्त रद्घुवीर सहाय के नये कविता-संग्रह आत्महत्या के विरु( में भी मैकू, खुशीराम, गिरोश वगैरह जैसे मूर्त व्यक्ति-चरित्राों का आना इसी प्रवृत्ति की सूचना देता है। पहले के लेखक जहाँ सत्य की तलाश में सतह पर तैरने वाली वस्तुओं और द्घटनाओं को पार करके तल में डुबकी लगाते थे, युवा-लेखक तथाकथित सतही वस्तुओं और द्घटनाओं को ही सत्य की व्यंजकता में समर्थ मानते हैं। पूर्ववर्ती लेखकों के मानस में वेदान्त का मायावाद कुछ इस तरह ब(मूल था कि उनके लिए 'तत्व तल से ही निकलता' था तथा सोनेवाली मछली निस्तल जल में ही रहती थी' और प्रयोग का 'मोती' लाने के लिए गोताखोर पनडुब्बी होने की आवश्यकता महसूस होती थी। इसके विपरीत युवा लेखक सतह पर सुलभ वस्तुओं को ही सत्य का वाचक मानता है और इस दृष्टि से युवा लेखन 'सुपरपिफशलिटी' या 'सतहीपन' का सार्थक साहित्य है। कहने वाले इस आधर पर इसे एकदम सतही और 'सुपरपिफशल' भी कह सकते हैं और ऐसी व्याख्या के लिए रोक कौन सकता है।
नगण्यता-बोध् का प्रभाव युवा-लेखन की भाषा पर भी देखा जा सकता है। अनेक कृतियों में नगण्य -से -नगण्य शब्दों से सारी रचना का विधान किया गया है कभी-कभी शब्दों की उस नगण्यता को 'कृत्रिामता' की हद तक भी पहुँचा दिया जाता है -एक विशेष प्रकार का प्रभाव उत्पन्न करने के लिए। यह प्रवृत्ति कविता और कहानी दोनों क्षेत्राों में देखी जा सकती है। इसके साथ ही प्रभामंडित बड़े शब्दों से परहेज भी सापफ है। निश्चय ही सर्वत्रा ऐसा नहीं हो सका है, लेकिन जहाँ ऐसा हुआ है वहाँ नगण्य शब्दों के जरिए भी ऐसे भयावह वातावरण की सृष्टि कर दी गई है जो बड़े-बड़े शब्दों के भी वश से बाहर है। छोटे-से-छोटे शब्द द्वारा बड़े-से-बड़ा विस्पफोटक प्रभाव उत्पन्न करके युवा-लेखकों ने दिखला दिया कि साहित्य के अंदर भी परमाणु युग आ गया। कहते हैं कि युवा-लेखकों ने शब्द और अर्थ का संबंध् तोड़ दिया। हुआ यह कि जिंदगी में जिन शब्दों का संबंध् अपने अर्थ से टूट गया था और पिफर भी उनके जुड़े होने का ढोंग किया जाता था, उस ढोंग को इन लेखकों ने तोड़ दिया। उन्होंने कुछ पूर्ववर्ती लेखकों की तरह शब्द में नए अर्थ भरने के नाम पर मुलम्मा चढ़ाने का काम नहीं किया। इसी से भाषा में यथातथ्यता की भी प्रवृत्ति बढ़ी है, यहाँ तक कि तथ्य ही भाषा बन गया।
'बाहरीपन' के बोध् से एक प्रकार की तटस्थता का उदय होता है जो किसी वस्तु को अपने रागबोध् से रंजित करके देखने की अपेक्षा वस्तु को उसकी वस्तुमयता में देखने और दिखाने की क्षमता प्रदान करती है। जो हमेशा अपने-आपको 'बाहर' समझने का आदी है वह पूर्ववर्ती लेखकों की तरह अन्य व्यक्तियों और वस्तुओं को अंदर से जानने की सर्वज्ञता का भ्रम नहीं पाल सकता। 'बाहरी' व्यक्ति के लिए शेष सभी व्यक्ति और वस्तुएँ 'वह' या 'वे' हैं जिनकी रहस्यमयता को भेदने के लिए वह सतत प्रयत्नशील रहता है। सीमा का यह बोध् एक ओर उसके स्वर को निस्संग बनाता है तो दूसरी ओर उसके सृजन को निर्वैयक्तिक रूप भी देता है। नितांत वैयक्तिक होते हुए भी प्रभाव में निर्वैयक्तिकता युवा-लेखक का विचित्रा विरोधभास है। अपने चरम रूप में यह कभी-कभी अमानवीयता का रूप धरण कर लेता है, जिसका आभास युवा-लेखन की नितांत निर्ममता या निष्ठुरता में परिलक्षित होता है। इस ठंडेपन को गुण और दोष-दोनों की संज्ञा दी जा सकती है। उसे गैर-रूमानी कहने का आधर यही है।
इसी प्रकार 'बाहरीपन' से पैदा होनेवाली दूरी वस्तुओं के चित्राण में कभी-कभी ऐसी 'रहस्यमयता' का प्रभामंडल डाल देती है कि वे अनपहचान हो जाती हैं। किंतु युवा-लेखन की यह रहस्यमयता छायावाद अथवा नई कविता के रहस्यवाद से भिन्न एक प्रकार के भयावह दुःस्वप्न के समान मालूम होती है। युवा-लेखन में भयावनी 'पफेंटेसी' की प्रवृत्ति इसी रहस्यमयता की सृष्टि है। इस कारण वस्तु- चित्राण में एक प्रकार के अमूर्तन का भी आविर्भाव हुआ है, जिसे कविता से अध्कि कहानी में स्पष्ट देखा जा सकता है। अपने विरोध् में युवा-लेखन जहाँ अमूर्त और सामान्य दिखाई पड़े, बाहरीपन का परिणाम समझना चाहिए। ऐसी स्थिति में लक्ष्य को ठीक-ठीक विविक्त करने के स्थान पर सरसरी तौर से सबको एक नजर से बुहारने की प्रवृत्ति भी देखी जाती है। युवा-लेखन में कहीं-कहीं जो एक ही सांस में सबको नकारने का अंदाज दिखाई पड़ता है, इसी का परिणाम है। नितांत बाहर होने अथवा अपने-आपको बाहर समझने के कारण व्यक्ति कभी-कभी 'निहिलिस्ट' या नकारवादी हो जाता है। इसीलिए जिस प्रकार संसार से सन्यास लेनेवाले साधु सारे संसार को माया एवं सारे सामाजिक संबंधों को निस्सार बताते पाए जाते हैं, उसी प्रकार कुछ युवा-लेखक भी संपूर्ण सामाजिक संबंधें की निरर्थकता द्घोषित करते रहते हैं। इस नैतिक अतिवाद की अनिवार्य विडंबना यह है कि सारी दुनिया को पाप-पंक में सनी कहने के साथ ही वह अपने-आपको भी 'मो सम कौन कुटिल खल कामी' कहकर कोसता रहता है। विरोध्यिों की भर्त्सना से भी अध्कि आत्मभर्त्सना की झलक कुछ युवा-लेखकों में स्पष्ट है जो कभी-कभी काव्य के स्तर तक भी पहुँच जाती है।
अपने इतिहास से बाहर रहने के कारण ही कुछ युवा-लेखकों में इतिहास से एकदम बाहर चले जाने की आकांक्षा दिखाई पड़ती है। संपूर्ण पंरपरा को एकदम नकार देने के मूल में यही आकांक्षा है। उध्र भविष्य का दरवाजा पहले ही से बंद है, इसीलिए इतिहास से बाहर जाने की चेष्ट अदबदाकर उन्हें 'आदिमपन' में ला छोड़ती है। जब इतिहास एक व्यर्थ का भार है और सभ्यता एक अभिशाप, तो आदिम अवस्था ही काम्य बच रहती है। इस आदिम मनोदशा में सारा संसार जंगल मामूल होता है और सारे आदमी पशु। कवि का मन ''चिड़ियों का व्याकरण'' सीखने के लिए बेचैन हो उठता है। इसी मनोदशा का एक रूप है ''अपनी जड़ों की खोज'', जिसका संकेत 'आरंभ'-२ के इस उ(रण में देखा जा सकता है ''आज इस वक्त की कविता अपनी जड़ों की खोज की बेचैन कविता है। '' इस दृष्टि से युवा-लेखन को 'मूलगामी' कहा जा सकता है। शायद हर नई शुरुआत के लिए एक बार जड़ों में जाने की जरूरत पड़ती है। इतिहास की अभीष्ट व्याख्या करने के लिए मार्क्स ने भी इतिहास से बाहर छलांग लगाई थी और प्रागैतिहासिक साम्यवादी समाज के मूल तत्वों की खोज की, इतिहास के बाहर एक बार अतीत की दिशा में तो दूसरी बार भविष्य की दिशा में किन्तु उनके पाँव बराबर इतिहास के अंदर वर्तमान की ठोस जमीन पर टिके रहे। 'आदिमपन' की दिशा में युवा-लेखन का मूलगामी प्रयास भी बहुत-कुछ वर्तमान का ही सृजनात्मक रूपांतर है और इससे सृजन के ध्रातल पर निश्चय ही नई संभावनाएँ व्यक्त हुई हैं।
किंतु इतिहास से बाहर जाने का एक प्रफॉयडीय मनोविश्लेषणात्मक प्रयास भी है जिसमें व्यक्ति के शिशु-मन की तथाकथित आदिम अंध्ेरी गुपफा है। युवा-लेखन का एक अंश ऐसा भी है जो सीध्े प्रफॉयड से प्रेरित या प्रभावित न होते हुए भी, मन की आदिम अंध्ेरी गुपफाओं से निकलने वाले प्रतीकों और मिथकों में अपने-आपको व्यक्त करता है। इसके मूल में एक विशेष प्रकार की अबौ(किता अथवा बु(विरोध् है। सामान्य बोध् का अतिक्रमण करके कुछ युवा-लेखन मानसिक अंध्ेरे की इसी दृष्टि से आज के संसार को देखते हैं और उसके आधर पर एक भयावह 'पफैंटेसी' के संसार की सृष्टि करते हैं। ऐसे लेखन का रूपगठन भी बौ(कि गठन से भिन्न बहुत कुछ अतार्किक होता है। यह प्रवृत्ति कविता और कहानी दोनों में दृष्टिगोचर होती है। एक उदाहरण दूध्नाथ सिंह की रचनाएँ हैं।
सेक्स-चित्राण में अतिरिक्त रुचि इसी आदिम मनोदश का दूसरा परिणाम है। 'एलिएनेशन' अथवा निर्वासन के परिणामों का वर्णन करते हुए मार्क्स ने लिखा है कि ''निर्वासन की स्थिति में जब तमाम सामाजिक और मानवीय संबंध व्यर्थ प्रतीत होने लगते हैं तो जो पाशव है वही मानवीय हो जाता है और मानवीय पाशव। इसलिए संभोग की शारीरिक क्रिया-जैसा 'पाशव' कर्म एकमात्रा ऐसा कर्म बच रहता है जिसमें निर्वासित व्यक्ति अपने-आपको 'मानव' समझता है, अगर्चे स्तर गिरकर पशुता तक पहुँच जाता है।'' युवा-लेखन में जहाँ नग्न सेक्स-चित्राण दिखाई पड़ता है, उसका रहस्य यही है। इसे व्यावसायिक लेखन की अश्लीलता के साथ गड्डमड्ड करना दृष्टि-भ्रम है।
किंतु सतर्क युवा लेखकों ने निर्वासन की इस आदिम एवं पाशव परिणति से मुक्त होने के लिए पूरा संद्घर्ष किया है। खुले सेक्स-चित्राण के लिए 'बदनाम' राजकमल चौध्री ने इसी प्रकार के एक अन्य युवतर लेखक श्रीराम शुक्ल को १.७.६६ के पत्रा में लिखा था ''स्त्राी- शरीर बहुत स्वास्थ्यप्रद वस्तु है-लेकिन कविता के लिए नहीं, संभोग करने के लिए। कविता में स्त्राी-शरीर अन्य सभी विषयों की तरह मात्रा एक विषय है-कविता का कारण या कविता का प्रतिपफल नहीं, मैं ऐसा ही मानता हूँ।... अब कविता के लिए हमारी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मान्यताएँ अध्कि आवश्यक विषय हैं। स्त्राी-शरीर को राजनीतिज्ञों, सेठों, बनियों और इनके प्रचारकों ने अपना हथियार बनाया है-हम लोगों को अपना क्रीतदास बनाए रखने के लिए। बेहतर हो, हम पत्रिाकाओं के कवर पर छपी हुई, कैलेंडरों पर छपी हुई अध्नंगी स्त्रिायों और अपने पब्लिक सेक्टर और प्राइवेट सेक्टर के मालिकों के लिए हमारा ईमान, हमारा जेहन, हमारी ताकत खरीदकर हमें नपुंसक बनानेवाली अध्नंगी स्त्रिायों को अब अपने साहित्य में उसी प्रकार प्रश्रय नहीं दें, न आत्मरति के लिए ओर न पर-पीड़ा के लिए! मैं श्लील-अश्लील नहीं मानता हूँ, लेकिन हम कवि हैं, हमें न तो नपुंसक, और न स्त्राी-अंगों का वकील बनना चाहिए।'' ;युयुत्सा, अगस्त' ६७, पृष्ठ १८७-८८द्ध
ऐसे सापफ वक्तव्य के बाद भी सारे युवा-लेखन को 'देह की राजनीति' का पर्याय कहने के पीछे और राजनीति ही हो सकती है। स्वयं राजकमल चौध्री को भी ऐसे आरोप का निशाना बनना पड़ा है, लेकिन उनके बारे में ज्यादा सच वह है जो एक दूसरे युवा कवि ध्ूमिल ने कहा हैः
जीभ और जाँद्घ के चालू भूगोल से
अलग हटकर उसकी कविता
एक ऐसी भाषा है ;भरोसे कीद्ध
जिसमें कहीं भी
'लेकिन','शायद','अगर' नहीं है
उसके लिए हम इत्मीनान से कह सकते हैं कि वह
एक ऐसा आदमी था जिसका मरना-
कविता से बाहर नहीं है।
जिस नंगे और बेलौसपन के साथ यहाँ एक सच बात कही गई है वह भी कुछ लोगों को 'नंगई' मामूल हो सकती है, लेकिन सच कहने के लिए अनेक युवा-लेखकों ने ऐसी नंगई को जान-बूझकर अपनाया है, क्योंकि बड़े-बड़े पहाड़ों को तोड़ने के लिए ऐसे शब्द 'डाइनामाइट' अथवा विस्पफोटक का कार्य करते हैं और रचना में मितव्ययिता की दृष्टि से उनका उपयोग आवश्यक है। एक ऐसे विस्पफोटक शब्द को वर्जित मान लेने के बाद जब दूसरे शब्दों का सहारा लिया जाता है। तो यही नहीं कि कलात्मक दृष्टि से रचना अनावश्यक रूप में पसर जाती है बल्कि मूल कथ्य भी बदल जाता है और कभी-कभी वह सच सच भी नहीं रह जाता। किन्तु उक्त उ(रण से स्पष्ट है कि युवा-लेखन में कहीं-न-कहीं जीभ और जाँद्घ का चालू भूगोल है, जिसे अनायास ही कुछ-एक 'अकवियों' में देखा जा सकता है।
वैसे, सेक्स-नैतिकता के मामले में सामान्यतः आज के युवा लेखक पूर्ववर्ती पीढ़ियों की तुलना में अध्कि वर्जना-मुक्त हैं। युवा -लेखकों के इस दावे में कापफी सच्चाई है कि उनमें अपने पूर्वजों का-सा ढोंग नहीं है। औरों ने जो किया लेकिन कहाँ नहीं, उसे स्वीकार करने का साहस आज के युवक में है, क्योंकि वह ढोंग को अनैतिक कार्य-विशेष से भी अध्कि अनैतिक मानता है। अतिरिक्त साहसिकता और आत्म-प्रदर्शन के बावजूद यह मानसिक खुलापन कुल मिलाकर साहित्य के लिए स्वास्थ्यप्रद है।
लेकिन जैसा कि राजकमल चौध्री के उस पत्रा से स्पष्ट है, आज की स्थिति में युवा लेखक स्त्राी-शरीर की अपेक्षा देश और संसार की राजनीतिक-आर्थिक समस्याओं को साहित्य-सृजन के लिए अध्कि महत्वपूर्ण मानता है। इसी दृष्टि से आज की कविता 'नई कविता' से कहीं अध्कि 'राजनीतिक' है। जिन भारत-व्याकुल लोगों की नजर में चीनी और पाकिस्तानी खतरा ही सबसे बड़ी समस्या है और इस दृष्टि से जो युवा-लेखकों से देशभक्ति के उद्बोध्न-गीतों की अपेक्षा रखते हैं, उनके लेखे युवा-लेखन निश्चय ही देशद्रोही है। लेकिन राजनीति को व्यापक अर्थ में लेने वाले देख सकते हैं कि युवा-लेखक कहीं अध्कि मूलगामी या 'रेडिकल' है-उग्रवाद की सीमा तक। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के अकाल पर युवा लेखकों ने जो सशक्त रचनाएँ कीं, उनसे युवा-लेखन की जागरूकता ही नहीं बल्कि दूसरी पीढ़ी के लेखकों से उनकी विशिष्टता भी स्पष्ट हुई है। इस दृष्टि से लखनऊ से निकलने वाली लद्घु-पत्रिाका 'आरंभ' का अकाल-अंक एक मिसाल ही नहीं, चुनौती है।
अपनी बाहरी स्थिति के कारण अध्किांश युवा-लेखक राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिक मतवादों से भी बाहर हैं, यहाँ तक कि कभी-कभी उन सबको निकम्मा भी कह बैठते हैं, किंतु ''आज की तीव्रतम राजनीतिक स्थिति और उसकी सारी तार्किक परिणतियों को अपने नितांत व्यक्तिगत और छोटी-से-छोटी अनुभूतियों के साथ संबं( कर लेने'' का प्रयास निरंतर बढ़ता जा रहा है। इस प्रकार राजनीतिक युवा-लेखन में कविता 'ज्वलंत प्रश्नों' और बड़ी-बड़ी द्घटनाओं के निर्वैयक्तिक वर्णन के रूप में नहीं, बल्कि रोजमर्रा के व्यक्तिगत अनुभवों के बीच से निकलती हुई-सी व्यक्त हुई है और इस दृष्टि से वह चौथे दशक की सामान्य राजनीतिक कविताओं से प्रकृत्या भिन्न है। चौथे आम चुनाव के बाद देश में जो राजनीतिक विकल्प प्रकट हुआ उसने इस दिशा में युवा-लेखन को और भी जागरूक कर दिया है। साथ ही वियतनामी जनता के मुक्ति-संर्द्घष में युवा-लेखकों ने जैसी दिलचस्पी ली है उससे स्पष्ट है कि वह अपनी राजनीतिक दृष्टि में नितांत स्थानीय नहीं, बल्कि विश्व की व्यापक गतिविधियों के प्रति भी पर्याप्त संवेदनशील है। इस संदर्भ में कभी-कभी युवा लेखकों की 'प्रतिब(ता' का प्रश्न भी उठाया जाता है। इस मामले में सभी युवा-लेखकों की स्थिति एक-सी नहीं हैं: किंतु एक बात स्पष्ट है कि पिछली पीढ़ी के कुछ व्यक्ति-स्वातंत्रयवादी लेखकों के समान इस पीढ़ी में एक भी लेखक अंध्-कम्युनिस्ट-विरोध्ी तथा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रूस के विरु( अमरीका के साथ रागात्मक संबंध् रखने वाला नहीं है। युवा-लेखक सामान्यतः वामपक्षी राजनीति के हिमायती हैं और कुछ तो किसी-न-किसी वामपक्षी दल से संबं( भी हैं, लेकिन अध्किांश में प्राक्‌-प्रतिब(ता ;प्रीकमिटमेंटद्ध है, उन्होंने अप्रतिब(ता ;नान-कमिटमेंटद्ध का अंतिम निर्णय नहीं कर लिया है।
अप्रतिब(ता प्रायः मोहभंग की उपज है, जिसकी बहुलता पिछली पीढ़ी के लेखकों में पाई जाती है। युवा-लेखन मोहभंग का साहित्य नहीं है। युवा-लेखकों ने कभी कोई मोह पाला ही नहीं जो उसका भंग होता । वह तो मोहभंग के बाद के वातावरण की उपज है, इसलिए न तो उस रूप में 'रोमैंटिक' है और न उस रूप में 'एंटी-रोमैंटिक'। उसकी तल्खी का रंग ही और है। जहाँ तक युवा लेखकों की 'प्राक्‌-प्रतिब(ता' के विकास की दिशा का संबंध् है, उसके बारे में इतना तो स्पष्ट है कि ऐतिहासिक विकास के समानांतर उनमें भी एक निश्चित प्रकार की स्पष्टता और दिशोन्मुखता आ रही है। शुरू में जो चेतना एक तथाकथित ' इस्टैब्लिशमेंट' के विरु( अस्पष्ट से असंतोष के रूप में मुखर हो रही थी, वह अब प्रतिष्ठित सत्ता के आधरों को विविक्त करने लगी है। पिछले दशक में युवकों को जिस प्रकार राजनीति से बाहर रखने की मिली-जुली साजिश की गई और वामपंथी दलों ने भी युवकों के प्रति जैसी उदासीनता दिखलाई, उसे देखते हुए युवा-लेखकों की इतनी जागरूकता भी गनीमत है।
इस प्रकार युवा-लेखन जिस 'बोध्' के आधर पर निर्मित हुआ है वह वस्तुनिष्ठ ऐतिहासिक स्थिति के सम्मुख बहुत-सी मनोगत सीमाओं के बावजूद वस्तुस्थिति को यथासंभव साहस के साथ देख सकने का आभास देता है। 'मानवीय नियति का साक्षात्कार' और 'वास्तविकता का नंगे बदन संस्पर्श' की आवाज इसी दौर में उठाई गई और उस दिशा में प्रयास भी किया गया है। समाजशास्त्राीय 'वस्तुनिष्ठ' औजारों से आज की स्थिति को देख सकने में समर्थ विद्वानों को युवा-लेखन का संसार एकांगी, अधूरा, कुछ विकृत, कुछ अतिरंजित भी लग सकता है किंतु इतना निश्चित है कि वह आदर्श-रंजित नहीं है। एक विशेष कोण से देखे जाने के कारण परिप्रेक्ष्य में अंतर हो सकता है, लेकिन रोशनी की तेजी में कमी नहीं है। यह तेजी ही युवा-लेखन की शक्ति है, और वैचारिक प्रतिज्ञाओं का ढाँचा गिर जाने के बाद भी सर्जनात्मक कृतियों को कायम रखती है। युवा-लेखन का रचना-संसार निस्संदेह बेहद खूँखार, भयावह और अजनबी है, किंतु अपनी सृजनशीलता के द्वारा वह यह भी व्यंजित कर देता है कि यह यथार्थ नहीं बल्कि यथार्थ का 'कलात्मक भ्रम' है और यह मायावीपन ही उसकी कलात्मकता का रहस्य है।
युवा-लेखन कविता और कथा दोनों विधओं के समान रूप से व्यक्त होने वाला एक समेकित आंदोलन है, पिछले युग के नवलेखन के समान 'नई कविता' में कुछ और तथा 'नई कहानी' में कुछ और ,जैसा विभक्त एवं खंडित युगबोध नहीं। यह समग्रता उसकी विशेषता है। युवा-लेखन 'प्रयोगवाद' की तरह न तो शिल्पगत प्रयोग का आंदोलन है और न 'नई कविता' की तरह अनुभूतियों की अद्वितीयत का आग्रह। यह ''परिस्थिति की तात्कालिक भाषा'' है जिसे युवा-लेखक इतिहास में अपनी विशेष 'स्थिति' के कारण पकड़ने के समर्थ हो सके। युवा-लेखन का महत्त्व 'आवाँ गार्द' होने में नहीं है-'आवाँ गार्द' होने की दिशा में उसका प्रयास भी नहीं है। 'समकालीनता' उसकी सार्थकता है और संभवतः नियति भी। इस 'ऐतिहासिक' अभियान में जो 'साहित्यिक' उपलब्ध्ि हुई है उसका अनुमान सिपर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि -'अकविता' और अकहानी' तक की ध्ज्जियाँ उड़ाने वाले भी इनकी कमजोरियाँ तो गिना देते हैं, लेकिन वहीं इनके समानांतर 'नई कविता' और 'नई कहानी' को बेहतर साबित करने का साहस नहीं जुटा पाते। इस लेखन से सामाजिक स्थिति भले ही न बदली हो, साहित्यिक स्थिति निश्चय ही बदल गई है, जिसका प्रमाण यह है कि पूर्ववर्ती लेखक भी इसी भाषा में बोलने का प्रयास करने लगे हैं। यह छायावाद की शक्ति थी कि मैथिलीशरण गुप्त भी 'झंकार' लिखने के लिए विवश हो गए थे। युवा-लेखन ने भी बहुतों को मैथिलीशरण बनने के लिए बाध्य कर दिया है।
जरूरी नहीं कि इतिहास को इसी तरह दोहराया जाए। अपनी जगह से भी एक वास्तविकता का साक्षात्कार तो किया ही जा सकता है, लेकिन इससे भी आगे बढ़कर जो युवा-लेखन के विकास में सक्रिय भाग लेना चाहते हैं और केवल मुहावरे में नहीं, बल्कि सच्चे मन से युवकों को भविष्य मानते हैं और उस भविष्य के निर्माण की चिंता करते हैं, उनके लिए एक युवा-कवि ध्ूमिल के शब्दः
तुम मेरी चिंता मत करो। उनके साथ
चलो। इससे पहले कि वे
गलत हाथों के हथियार हों
इससे पहले कि वे नारों और इश्तिहारों से
काले बाजार हों
उनसे मिलो। उन्हें बदलो।

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