देवेन्द्र प्रताप
हरित प्रदेश
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बंटवारे की जब से शुरुआत हुई तब से अभी तक उसे कई नाम मिले। गन्ना प्रदेश, किसान प्रदेश, जाटिस्तान, ब्रज प्रदेश, पश्चिमांचल और फिर हरित प्रदेश जैसे नाम इसके इतिहास को बयां करते हैं। इनमें से सबसे नया नाम हरित प्रदेश है। हरित प्रदेश की मांग को राष्ट्रीय लोकदल ने राष्ट्रीय मुद्दा बनाया। उन्होंने इसके लिए लम्बी लड़ाई भी लड़ी, लेकिन आज भी यह मुद्दा अधर में लटका हुआ है। छ: करोड़ की जनसंख्या वाले प्रस्तावित हरित प्रदेश में उत्तर प्रदेश के छ: मंडलों (मेरठ, सहारनपुर, मुरादाबाद, बरेली, आगरा और अलीगढ़) के 22 जिले (आगरा, बरेली, मैनपुरी, फिरोजाबाद, अलीगढ़, बरेली, बदायूं, बुलंदशहर, एटा, मथुरा, मेरठ, गाजियाबाद, रामपुर, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, हरिद्वार, शाहजहांपुर, महामाया नगर, बागपत, गौतमबुद्ध नगर और ज्योतिबाफुले नगर) शामिल हैं। मायावती ने करीब 12 साल पहले मथुरा में एक मीटिंग के दौरान इस मांग का समर्थन किया था। 2009 में उन्होंने उत्तर प्रदेश को दो हिस्सों में विभाजित करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र भी लिखा। इसी तरह का एक पत्र वे 2007 में भी लिख चुकी हैं। 1955 में भीमराव अंबेडकर ने भी उत्तर प्रदेश को तीन हिस्सों (पूर्वी, मध्य और पश्चिमी प्रदेश) में विभाजित करने का सुझाव दिया था। आज अगर उनके सुझाव पर गौर किया गया होता तो इलाहाबाद, कानपुर और मेरठ क्रमश: उत्तर प्रदेश के प्रस्तावित पूर्वी प्रदेश, मध्य प्रदेश और पश्चिमी प्रदेश की राजधानी होते।पश्चिमी उत्तर प्रदेश को उत्तर प्रदेश के पंजाब का दर्जा हासिल है। उत्तर प्रदेश के ज्यादातर उद्योग प्रस्तावित हरित प्रदेश की सीमा में ही आते हैं। इसके बावजूद सरकारी उपेक्षा के चलते इस क्षेत्र के कई लघु उद्योग और सहकारी चीनी मिलें आज बंद हो चुकी हैं। चीनी मिलों की बंदी ने दसियों हजार लोगों का रोजगार छीन लिया। नाइंसाफी यह कि सरकार को इस क्षेत्र से राज्य की कुल आय का 72 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त होता है, लेकिन वह इस आय का मात्र 18 प्रतिशत हिस्सा ही इस इलाके के विकास के ऊपर खर्च करती है। तरक्की में कीर्तिमान स्थापित करने के बावजूद यह क्षेत्र शिक्षा के मामले में राज्य के दूसरे इलाकों से पिछड़ा हुआ है, वहीं दूसरी ओर यहां अपराध का स्तर बहुत ऊंचा है। स्थिति यह है कि आज मेरठ और मुजफ्फर नगर जैसे शहरों को क्राइम सिटी कहा जाने लगा है।
हरित प्रदेश की लड़ाई के पीछे की एक बड़ी वजह यहां हाईकोर्ट की बेंच का न होना भी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए अलग से हाईकोर्ट की कोई बेंच नहीं है। इसके लिए यहां के लोगों को इलाहाबाद जाना होता है। इलाहाबाद से मेरठ 637 किमी, मुजफ्फरनगर 693 किमी, सहारनपुर 752 किमी, बागपत 700 किमी, गाजियाबाद 662 किमी, बिजनौर 692 किमी, गौतमबुद्ध नगर 650 किमी, अलीगढ़ और मथुरा 501 किमी, आगरा 464 किमी, एटा 497 किमी, और मैनपुरी 462 किमी की दूरी पर है। मेरठ से इलाहाबाद हाईकोर्ट जाने के लिए सिर्फ दो ट्रेनों की सुविधा है। ऐसे में यहां के लोगों को इलाहाबाद जाने में बेहद परेशानी उठानी होती है। मुकद्मे के लिए यहां से इलाहाबाद जाने वाला व्यक्ति आमतौर पर प्रति सुनवाई 3000-4000 खर्च करता है। यह राशि उससे अलग है, जो मुवक्किल अपने वकील को देता है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक इस इलाके के लोग साल भर में तकरीबन 100 करोड़ रुपये इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकद्मेबाजी पर ही खर्च कर देते हैं। जाहिरा तौर पर ऐसे में इलाहाबाद के वकील कभी नहीं चाहेंगे कि यहां हाईकोर्ट के बेंच खोली जाए। हरित प्रदेश की लड़ाई लड़ने वाली शक्तियों का मानना है कि अलग राज्य बनने से ही इस मसले का समाधान हो सकता है।
पूर्वांचल
प्रस्तावित पूर्वांचल राज्य का कुल क्षेत्रफल उत्तर प्रदेश का एक तिहाई और उत्तरांचल के डेढ़ गुने से ज्यादा है। इसमें उत्तर प्रदेश के आठ मण्डलों (इलाहाबाद, वाराणसी, मिर्जापुर, गोरखपुर, आजमगढ, बस्ती, फैजाबाद व देवीपाटन) के 27 जिले (इलाहाबाद, गोरखपुर, वाराणसी, चन्दौली, गाजीपुर, बलिया, देवरिया, कुशीनगर, महराजगंज संतकबीरनगर, सिद्धार्थनगर, बस्ती, बलरामपुर, गोंडा, कौशाम्बी, बहराइच, श्रावस्ती, फैजाबाद, अंबेडकरनगर, आजमगढ़, मऊ, सुलतानपुर, प्रतापगढ़, भदोही, मिजार्पुर व सोनभद्र) शामिल हैं। 18 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश की आधी आबादी (9 करोड़) पूर्वी उत्तर में रहती है। वर्तमान में पूर्वांचल के अंतर्गत उत्तर प्रदेश विधानसभा की 147 और लोकसभा की 28 सीटे हैं। यहां से 147 विधायक और 28 सांसद चुने जाते हैं, लेकिन विकास के मामले में पूरा इलाका पिछड़ा हुआ है।
इस समय पूर्वांचल की 26 चीनी मिलों में से ज्यादातर बंद हो चुकी हैं। गोरखपुर फर्टिलाइजर कारखाना देश के पांच प्रधानमंत्रियों के आश्वासन (नरसिम्हा राव, एचडी देवगौडा, आई के गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह) के बावजूद आज तक नहीं खुल सका। इस क्षेत्र के करीब डेढ़ करोड़ युवा आज बेरोजगार हैं, जबकि पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीते हैं। रोजगार के अवसर की कमी और बढ़ती बेरोजगारी यहां एक स्थाई समस्या बन चुकी है। यहां से पलायन के पीछे की यह एक बड़ी वजह है। पूर्वांचल में 12 हजार मेगावाट बिजली पैदा होती है, बावजूद इसके यहां के लोग बिजली के लिए तरसते हैं। विजली की कमी के चलते इस क्षेत्र के लघु उद्योग दम तोड़ रहे हैं। हथकरघा के लिए प्रसिद्ध मऊ, साड़ी के लिए बनारस, पीतल के बर्तन के लिए मिर्जापुर, कालीन के लिए भदोही और मिट्टी के बर्तनों के लिए चुनार, आज अपनी किस्मत पर आंसू बहा रहे हैं। बनारस के बुनकर आज अपना ही खून बेचकर पेट पालने के लिए मजबूर हैं। पूर्वांचल राज्य के गठन पर 50 के दशक की पटेल आयोग की रिपोर्ट योजना आयोग की फाइलों में आज भी दबी है। इसी को आधार बनाकर ‘पूर्वांचल बनाओ मंच’, ‘पूर्वांचल स्थापना समिति’ और ‘अखिल भारतीय लोकमंच’ अलग पूर्वांचल राज्य बनाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं।
तेलंगाना
बेराजगारी, विकास कार्यों की उपेक्षा, सिंचाई के साधनों की कमी, राज्य में असमान विकास व सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन और अतीत के जन आंदोलनों (1949 का तेलंगाना आंदोलन, 1969 का प्रसिद्ध छात्र आंदोलन आदि) के दमन ने धीरे-धीरे तेलंगाना की जनता के मन में अलग राज्य का बीज बोया। किसानों की आत्महत्याओं ने भी पृथक तेलंगाना राज्य आंदोलन की जमीन तैयार करने का काम किया। 2000 तक आते-आते तेलंगाना क्षेत्र में पृथकतावादी ताकतों का उदय हो चुका था। 2001 में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) क्षेत्र की पृथकतावादी ताकतों का एक साझा मंच बना। टीआरएस द्वारा प्रस्तावित तेलंगाना राज्य में आंध्र प्रदेश के कुल 23 जिलों में से 10 जिले शामिल हैं। प्रस्तावित राज्य में आंध्र प्रदेश की 294 में से 119 विधानसभा सीटें शामिल हैं। 2004 तक टीआरएस ने क्षेत्र की जनता के बीच अपनी अच्छी खासी पैठ बना ली। इस वर्ष उसने कांग्रेस के साथ मिलकर विधानसभा का चुनाव लड़ा। इस चुनाव में टीआरएस को आंध्र प्रदेश की 26 सीटों पर जीत हासिल हुई। इसी साल लोकसभा चुनाव में भी उसे आंध्र प्रदेश की कुल 16 सीटों में से पांच सीटों पर विजय मिली। दिसम्बर 2009 में पृथक तेलंगाना राज्य का आन्दोलन अपने चरम पर पहुंच गया। इसे शांत करने के लिए केंद्र सरकार को काफी मशक्कत करनी पड़ी। ऐसा माना जाता है कि सरकार ने यदि 1969-70 के छात्र आंदोलन के दौरान, ‘तेलंगाना क्षेत्रीय समिति के मुद्दे’ पर हुए समझौते को लागू किया होता, तो आज यह नौबत नहीं आती। फिलहाल तेलंगाना शांत है, लेकिन अगर केंद्र सरकार ने ज्यादा लापरवाही बरती, तो उसे फिर से परेशान होना पड़ सकता है।
विदर्भ
97,321 वर्ग किलोमीटर में फैले विदर्भ क्षेत्र में महाराष्ट्र के 11 जिले शामिल हैं। वरहाठी (मराठी की उपभाषा) भाषा बहुल, तीन करोड़ की आबादी वाले विदर्भ क्षेत्र में विधानसभा की कुल 62 और लोकसभा की 10 सीटें हैं। यहां की कुल आबादी में 76.90 प्रतिशत हिंदू, 13.07 फीसद बौद्ध, 8.3 फीसद मुस्लिम और 2.6 फीसद अन्य धार्मिक समुदाय हैं। कपास, संतरा, अंगूर, गन्ना और सोयाबीन यहां की मुख्य फसलें हैं, जबकि ज्वार, बाजरा और चावल पारंपरिक फसलें हैं। विदर्भ का क्षेत्र अपने खनिज भंडार के लिए खास अहमियत रखता है। यहां कोयला, मैगनीज, लौह अयस्क का भंडार है।
महाराष्ट्र राज्य का गठन और विदर्भ का अलग राज्य बनाये जाने का मुद्दा कमोवेश एक ही समय की घटनाएं हैं। केंद्र सरकार ने ‘अलग राज्य मान्यता कानून 1956’ के तहत विदर्भ को महाराष्ट्र में शामिल किया। पश्चिमी महाराष्ट्र के राजनेताओं के दबाव के कारण 1 मई 1960 को महाराष्ट्र राज्य अस्तित्व में आया। इसके कुछ समय बाद ही राज्य पुनर्गठन आयोग ने विदर्भ को राज्य बनाने और नागपुर को उसकी राजधानी बनाये जाने की बात कही। तब से ही विदर्भ को अलग राज्य बनाए जाने की बात हो रही है। एक समय देश के सबसे उपजाऊ भू भाग रहे विदर्भ में पिछले एक दशकों में करीब 32 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह समूचे महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्याओं का 75 प्रतिशत है। समस्या से अपरिचित किसी व्यक्ति के लिए यह आश्चर्य का विषय हो सकता है कि कपास, गन्ना, अंगूर और सोयाबीन जैसी नकदी फसलों का उत्पादन करने वाला विदर्भ का किसान, आखिर आत्महत्या क्यों करता है? इस क्षेत्र की सबसे कीमती व नकदी फसल कपास आज किसानों को मौत की नींद सुलाने में लगी है। कपास उत्पादन के लिए यहां का किसान मोनसेंटो और कारगिल जैसी अमेरिकी कंपनियों के बीज, खाद और कीटनाशकों पर निर्भर है। सूदखोरों, विदेशी कंपनियों और बैंकों की तिगड़ी ने इस इलाके में ऐसा चक्रव्यूह रचा है कि किसान उनसे छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या का रास्ता अख्तियार करते हैं। केंद्र सरकार ने पिछले तीन साल में इस इलाके के किसानों के लिए 3750 करोड़ रुपए का राहत पैकेज तथा कर्ज माफी के लिए 712 करोड़ रुपए दिए। राज्य सरकार ने भी यहां के विकास के लिए 1200 करोड़ रुपए की विशेष सहायता दी हांलाकि इसका करीब 80 प्रतिशत हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। यही वजह है कि विदर्भ को अलग राज्य बनाने की मांग, किसानों की आत्महत्याओं के बढ़ने के साथ ही जोर पकड़ती गयी है। इस आन्दोलन को गति देने में सूखे ने भी खास भूमिका निभाई है। पिछले कुछ सालों से इस इलाके में बारिस नहीं हुई, जिसके चलते यहां का किसान दाने-दाने को मोहताज है। यह अलग बात है कि विदर्भ की मुखालफत करने वाले पश्चिमी महाराष्ट्र के रसूखदार नेताओं की तुलना में विदर्भ आंदोलन का अपना कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। यही इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है।
सेंट्रल त्रावणकोर
सेंट्रल त्रावणकोर केरल में है। प्रस्तावित सेंट्रल त्रावणकोर राज्य में अलप्पुजा, पथनमथित्ता के साथ ही कोट्टयम, इडुकी और कोलम जिलों के कुछ हिस्से शामिल हैं। पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन भी कोट्टयम के ही हैं। लोकसभा में केरल कांग्रेस के जोश के. मनी कोट्टयम के ही हैं। सेंट्रल ट्रावणकोर को अगर राज्य का दर्जा हासिल होता है तो अलप्पुजा, कोट्टयम या फिर तिरुवल्ला को राज्य की राजधानी बनाया जाएगा। सेंट्रल ट्रावणकोर का इलाका भारत के सबसे समृद्धतम इलाकों में से एक है। यहां की जनता इसलिए अलग राज्य चाहती है क्योंकि केरल के दूसरे पिछड़े इलाकों की कीमत उन्हें चुकानी पड़ती है। यहां के लोगों की मांग है कि या तो सरकार उनके लिए ‘विशेष प्रशासनिक क्षेत्र’ बनाए या फिर ‘सेंट्रल त्रावणकोर’ को अलग राज्य का दर्जा दे। यह इलाका एक ‘स्मार्ट सिटी’ की दृष्टि से बहुत ही बढ़िया जगह है। आई टी, बीपीओ, बायोटेक, फूड प्रोसेसिंग, ट्यूरिज्म, मेडिकल, बैंक और बीमा जैसे क्षेत्रों में निवेश की दृष्टि से यह इलाका बहुत ही बढ़िया है। जानकारों का मानना है कि अगर सेंट्रल ट्रावणकोर राज्य बनता है तो इसे तरक्की की सीढ़ियां चढ़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।
बुंदेलखंड
बुंदेलखंड आजादी के पहले एक स्वतंत्र राज्य था। इस इलाके को कवियों ने ‘इत चम्बल उत ताप्ती’ कहा है। 1948 में बुन्देलखण्ड और बघेलखण्ड के 35 राजाओं ने भारत सरकार के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर कर अपनी-अपनी रियासतों को भारत में मिला दिया। प्रस्तावित बुंदेलखंड राज्य में उत्तर प्रदेश के सात (झांसी, जालान, ललितपुर, हमीरपुर, महोबा, बांदा और चित्रकूट) और मध्यप्रदेश के छ: (दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दमोह और सागर) जिले शामिल हैं। भौगोलिक तौर पर यह इलाका भारत के मध्य में है। इस इलाके की बोली बुंदेलखंडी है। 60 हजार वर्ग किलोमीटर में फैले प्रस्तावित बुंदेलखंड राज्य की आबादी पांच करोड़ है। अगर यह राज्य बनता है तो झांसी इसकी राजधानी बनेगी। खनिज संपदा से भरपूर बुंदेलखंड की जनता करीब 50 सालों अलग राज्य के लिए आंदोलन कर रही है। इस मुद्दे पर 1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सहमति के बावजूद आज भी बुंदेलखंड को अलग राज्य का दर्जा नहीं मिल पाया है।यह देश का ऐसा इलाका है जहां पानी के लिए डाका पड़ता है। यहां पानी के लिए गोलियां चलती हैं और न जाने कितनी जिंदगियां हर साल पानी की भेंट चढ़ जाती हैं। केन ,बेतवा, सोन, मंदाकिनी, धसान, सुनार, कोपरा, और व्यारमा जैसे कई छोटी बड़ी नदियां और हर साल मध्यप्रदेश में होने वाली करीब 1100 मिमी वर्षा के बावजूद, आज भी यह एक यक्ष प्रश्न है कि आखिर यह धरती इतनी प्यासी क्यों है? अभी तक अलग राज्य के लिए बुन्देलखण्ड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष राजा बुन्देला, कर्वी (चित्रकूट) से खजुराहो (मध्यप्रदेश) तक 300 किलोमीटर से भी ज्यादा की पदयात्रा कर चुके हैं। बुंदेलखंड एकीकृत पार्टी और बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा जैसे कुछ स्थानीय संगठन और पार्टियां ही इस आंदोलन की रीढ़ हैं। राष्ट्रीय पार्टियों ने अभी तक इस बुंदेलखंड आंदोलन से खुद को दूर ही रखा है।
कोदगू
कोदगू दक्षिणी भारत का एक प्रसिद्ध हिल स्टेशन है। इसे दक्षिणी भारत का कश्मीर और भारत का स्विटजरलैंड कहा जाता है। आजादी के पहले कोदगू एक स्वतंत्र रियासत थी। भौगोलिक और सांस्कृतिक रुप में कर्नाटक से विल्कुल अलग पहचान रखने के बावजूद 1956 में इसे कर्नाटक के साथ मिला लिया गया। कानून के मुताबिक अंडमान और निकोबार द्वीप में बाहर का कोई व्यक्ति जमीन नहीं खरीद सकता। इसी को आधार बनाकर कोदगू राज्य आंदोलन से जुड़ी शक्तियां कोदगू से बाहरी लोगों को भगाने की मांग कर रहे हैं। कोदगू कावेरी नदी के किनारे बसा है। नदी के किनारे बसे दसियों लाख दक्षिण भारतीयों की पालनहार है कावेरी। कोडगू लोगों के लिए यह मां की तरह है। इसलिए कोडगू क्षेत्र के लोगों का कावेरी से बहुत गहरा नाता है। बाहर जो लोग यहां आये उन्होंने अपने लाभ के लिए कावेरी के किनारे बड़े-बड़े उद्योग लगाए। आज कावेरी गंगा की तरह ही प्रदूषित हो गयी है। इसलिए कोदगूवासियों की मांग है कि न सिर्फ बाहरी लोगों को यहां से भगाया जाए वरन कावेरी के पारिस्थितिक तंत्र को भी बचाया जाए। कोदगू के पर्यावरण को बचाने के लिए स्वयं सेवी संगठनों ने भी कमर कस ली है, इसने कोदगू राज्य आंदोलन को नई गति देने का काम किया है।
गोरखालैंड
1907 में गोरखा क्षेत्र के लिए एक अलग प्रशासनिक इकाई गठित करने की बात उठी। 1986 में सुभाष घिसिंग के नेतृत्व में गोरखा नेशनल लिबरेशन फोर्स (जीएनएलएफ; गठन 1980) ने ‘स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई’ की जगह बंगाल से अलग एक स्वतंत्र ‘गोरखा राज्य’ के लिए बहुत ही जबर्दस्त आंदोलन किया। सरकार ने इस आंदोलन का दमन किया, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये और हजारों घायल हुए। 1988 में तत्कालीन गृह मंत्री बूटा सिंह और बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने जीएनएलएफ के साथ ‘दार्जिलिंग गोरखा हिल कौंसिल’ एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किया। इस तरह स्वतंत्र गोरखा राज्य की मांग टल गयी। 2004 में सुभाष घिसिंग के साथ मतभेद के चलते उनके सहयोगी विमल गुरुंग उनसे अलग हो गये। 7 अक्टूबर 2007 को रोशन गिरी और विमल गुरुंग ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) का गठन किया। 2008 में जीजेएम ने गोरखा राज्य के लिए बहुत बड़ा आंदोलन किया। आंदोलन के हिंसक स्वरुप ग्रहण करते ही सरकार ने सुलह का रास्ता अख्तियार किया। जीजेएम के बढ़ते दबाव के चलते 8 सितंबर 2008 को बंगाल के मुख्यमंत्री, केंद्र सरकार और गोरखा क्षेत्र की पाटियों के बीच राज्य गठन के मुद्दे पर वार्ता हुई, हालांकि यह वार्ता बहुत कारगर नहीं रही। 21 मई 2010 को जीजेएम कार्यकर्ताओं द्वारा अखिल भारतीय गोरखा लीग के नेता मदन तमांग की हत्या के बाद जीजेएम की वर्षों की बनी बनाई मेहनत पर पानी फिरता नजर आया। फिलहाल गोरखालैंड का मसला जीजेएम, बंगाल सरकार और केंद्र सरकार और गोरखालैंड की दूसरी राजनीतिक शक्तियों के बीच दांच पेंच में फंसा हुआ है। घिसिंग द्वारा प्रस्तावित गोरखालैंड में बंगाल के बनरहट, भक्तिनगर, बीरपारा, चालसा, दार्जिलिंग, जयगांव, कालचीनी, कालीमपोंग, कुमारग्राम, कर्स्यांग, मदारीहट, मालबजार, मिरिक और नागरकट्टा शामिल हैं। यह क्षेत्र तीन देशों (नेपाल, भूटान और बांग्लादेश) और भारत के चार राज्यों (बिहार, बंगाल, असम और सिक्किम) के बीच स्थित है। इस समय गोरखालैंड के प्रभावी नेता गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के विमल गुरुंग हैं। दार्जिलिंग, कर्स्यांग और कलिमपोंग का क्षेत्रफल 1600 वर्ग किलोमीटर और जनसंख्या 800000 है। इसमें लेप्चा और भोटिया लोगों की आबादी 700000 है। इस इलाके में इनकी जनसंख्या सबसे ज्यादा है। सिलीगुड़ी के मैदानी इलाके की कुल जनसंख्या 800,000 है। इसमें करीब 80 प्रतिशत बंगाली हैं। इसका क्षेत्रफल (नक्सलबाड़ी को छोड़कर) 900 वर्ग किलोमीटर है। इस इलाके में बाकी 20 प्रतिशत में बिहारी, मारवाड़ी, गोरखा और दूसरी जातियां हैं। संकोश नदी के पश्चिम में 4000 वर्ग किलोमीटर में फैले मालबाजार और नगरकट्टा आदि जिलों की कुल आबादी 10,00000 है, इसमें गोरखा सिर्फ 30 प्रतिशत हैं। यदि प्रस्तावित गोरखा क्षेत्र में 6500 वर्ग किलोमीटर इलाके की 26 लाख आबादी और जुड़ जाए तो गोरखामंडल के गोरखा अल्पसंख्यक बन जाएंगे। असेम्बली में भी उनका प्रतिशत कम हो जाएगा या फिर उन्हें इसके लिए आरक्षण का सहारा लेना होगा। गोररखालैंड के विरोधियों ने विमल गुरुंग को एक सुझाव यह भी दिया है कि गोरखा लोगों को सिक्किम में शामिल हो जाना चाहिए, जहां गोरखाओं की अच्छी तादात के साथ ही नेपाली, भोटिया, लेप्चा और कुछ दूसरी मंगोल जातियां भी हैं।उनके इस कदम से बेवजह के राज्य बंटवारे का झंझट भी नहीं होगा और उनकी मांग भी पूरी हो जाएगी। वैसे भी एक समय दार्जिलिंग सिक्किम का ही हिस्सा था।
बोडोलैंड
बोडो जनजाति ब्रह्मपुत्र नदी के कछारी इलाके में रहती है। इसीलिए इस क्षेत्र को बोडो कछारी कहा जाता है। बोडोलैंड में बोडो जनजाति के साथ नेपाली, संथाल, कोच, हिंदू असमी, बंगाली हिंदू और मुस्लिमों के अलावा कई ऐसी जनजातीय समूह भी हैं जो चाय के बागानों में काम करने के लिए यहां आये और यहीं बस गये। बोडो जनजाति का बड़ा हिस्सा अशिक्षित है। जो पढ़ना चाहते हैं उन्हें गोहाटी, डिब्रूगढ़ और शिलांग के कालेजों में प्रवेश नहीं मिलता। यहां के सिर्फ आठ प्रतिशत लोगों के पास ही नौकरी है और दो प्रतिशत लोगों के पास छोटा-मोटा स्थानीय व्यवसाय है। यहां संयुक्त परिवारों का चलन है। आमतौर पर एक परिवार में एक व्यक्ति के ऊपर करीब सात लोग निर्भर हैं। असम की ब्रम्हपुत्र घाटी में बोडो सबसे बड़े भाषायी और जातीय समुदाय हैं। यह भारत की आठवीं सबसे बड़ी अनुसूचित जनजाति है। असम की कुल आबादी 26,655,528 है, जबकि बोडो जाति समूह की कुल आबादी करीब 15 लाख है। इसके बावजूद असम के उत्तरी इलाकों में रहने वाली बोडो जाति आज भी उपेक्षा की शिकार है। बोडो की कुल आबादी का करीब 80 प्रतिशत गरीबी में जीवन बिताता है। शिशु मृत्यु दर के मामले में यह दुनिया में पहले स्थान पर है। यहां प्रति हजार नवजात शिशुओं में से औसतन 75 बच्चे जन्म के बाद ही मर जाते हैं।
यहां ज्यादातर लोगों के पास ठीक-ठाक घर तक नहीं हैं। इलाज कराने के लिए अस्पताल नहीं। यहां के लोगों के लिए मलेरिया और डायरिया भी लाइलाज बीमारियां हैं। 2003 में जारी असम की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार इस इलाके में गरीबों की संख्या उत्तरपूर्व के सात राज्यों में से सबसे ज्यादा है। करीब 90 प्रतिशत आबादी की जीविका का साधन कृषि है, जबकि इनमें से करीब 60 प्रतिशत लोगों के पास इतनी जमीन नहीं है कि उससे गुजारा चल सके। राज्य की ओर से मिलने वाली मदद का 80 प्रतिशत भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। अभी तक अलग बोडो राज्य के लिए 1987 से 1993 के बीच करीब सात बार हिंसात्मक संघर्ष हो चुके हैं। सरकार ने इन प्रदर्शनों से बचने के लिए बीच का रास्ता निकाला। 2003 में गठित बोडोलैंड टेरीटोरियल कौंसिल (बीटीसी) इसी का परिणाम थी। नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आॅफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) ने लंबे समय तक भारत सरकार के साथ इस समस्या का समाधान करने की कोशिश की लेकिन उसका कोई खास नतीजा नहीं निकला। एनडीएफबी का बोडोलैंड के मुद्दे पर बहुत ही बुनियादी मतभेद है। इसीलिए पिछले दिनों एनडीएफबी ने उल्फा से साफ तौर पर कह दिया कि, ‘उल्फा बोडो जनजातियों के मामले में अपनी टांग न अड़ाये। यह मामला भारत सरकार और हमारे बीच का है। आज हर बोडो स्वतंत्र बोडो राज्य के गठन के लिए अपनी कुर्बानी देने के लिए तैयार है।’
सोनांचल
सरकारी उपेक्षा के चलते आज समूचा सोनांचल माओवादियों आंदोलन के प्रभाव में है। 2005 में हरीराम चेरो के नेतृत्व में सोनांचल संघर्ष समिति ने मिर्जापुर, सोनभद्र और चंदौली जिलों को मिलाकर सोनांचल राज्य के गठन करने की मांग उठाई। 2007 में सोनांचल राज्य के गठन के लिए हजारों आदिवासियों ने लखनऊ में विधान सभा के सामने प्रदर्शन भी किया, लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गयी। सोनांचल के मसले से असहमत लोगों का तर्क है कि क्षेत्रफल की दृष्टि से यह इलाका बहुत छोटा है। इस मसले पर सोनांचल की पक्षधर शक्तियों का तर्क है कि प्रस्तावित सोनांचल राज्य क्षेत्रफल की दृष्टि से मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा, सिक्किम और अरुणांचल से बहुत बड़ा है। इसके गठन में एक पेंच यह भी है कि पूर्वांचल राज्य की मांग करने वाले संगठनों ने सोनांचल के तीनों जिलों को पूर्वांचल के मानचित्र में दिखाया है। पूर्वांचल आंदोलन के नेता सोनांचल के नेताओं की तुलना में ज्यादा रसूख वाले हैं। इसलिए फिलहाल तो सोनांचल के रास्ते में पूर्वांचल एक बड़ी बाधा बना हुआ है। प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर विंध्य के पहाड़ी आदिवासी भयंकर गरीबी में जीवन जीते हैं। बड़ी आबादी मुख्यधारा से कटी हुई है। यहां की प्राकृतिक सम्पदा न सिर्फ दूसरे राज्यों के काम आ रही है, बल्कि यहां पत्थर की खदानों में काम करने वाले ज्यादातर आदिवासियों के लिए ये खदानें मौत का कुंआ बन चुकी हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक सोनांचल में प्रतिदिन एक आदमी इन खदानों की भेंट चढ़ जाता है। मरने वालों में से ज्यादातर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के होते हैं। इसी तरह की सैकड़ों समस्याओं ने यहां के लोगों को पृथक सोनांचल राज्य का आंदोलन छेड़ने के लिए विवश किया।
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